हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक एवं मासिक पत्रिका 'हरिगंधाÓ के मुख्य संपादक डा. श्याम सखा 'श्यामÓ से अंतरंग बातचीत
साहित्य सेवा का जुनून किसे कहते हैं, यह पता डा. श्याम सखा 'श्यामÓ को देखकर चलता है, जिन्होंने जमे-जमाये चिकित्सा पेशे को अलविदा कहकर साहित्य साधना को प्राथमिकता दी। यह बात अलग है कि वह नि:शुल्क चिकित्सा अभियान में जुटे हैं। ग्यारह वर्ष तक अपनी जेब से 'मसि-कागदÓ का प्रकाशन करने वाले डा. श्याम लोक साहित्य के प्रति गंभीर रहे हैं, उनकी सेवाओं के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा लोक साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार पं. लखमीचंद पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया। हिंदी, पंजाबी, हरियाणवी तथा अंग्रेजी में अधिकारपूर्वक लिखने वाले डा. श्याम अब तक तीस पुस्तकें लिख चुके हैं। उनकी पांच पुस्तकें हरियाणवी व पंजाबी अकादमियों द्वारा पुरस्कृत की जा चुकी हैं। देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित डा. सखा की विभिन्न भाषाओं में 10 कहानियां कई अकादमियों द्वारा पुरस्कृत हो चुकी हैं। उनकी चर्चित कृतियों में अकथ (कहानी संग्रह), घणी गई थोड़ी रही (लोककथा), कोई फायदा नहीं और यहां से वहां तक (उपन्यास) शामिल हैं। वर्तमान में वह हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक एवं मासिक पत्रिका 'हरिगंधाÓ के मुख्य संपादक हैं। उनसे हुई एक मुलाकात के अंश :
० पहला प्यार क्या था - चिकित्सा का पेशा या साहित्य?
- नहीं, मैं बचपन में फोटोग्राफर बनना चाहता था। मेरी धारणा थी कि फोटो सच का पर्याय है। एक चित्र वह सब कुछ बयां कर देता है, जो हजारों शब्द बयां नहीं कर सकते। इसका श्रेय जाने-माने फोटोग्राफर प्राण भाटिया को भी जाता है, जो मेरे पड़ौसी थे। उनका डार्करूम मुझे आकर्षित करता था, वहां फोटो बनाने की प्रक्रिया लुभाती थी। मेरे संपर्क में आये फोटोग्राफर आज फिल्मों-टीवी में अच्छा कर रहे हैं।
० साहित्य की तरफ रुझान कैसे हुआ?
- बचपन से ही पढऩे का शौक था। चुपके-चुपके उपन्यास पढ़ा करता था। पहला उपन्यास तब पढ़ा जब भाई घर लेकर आये और मैंने चुपके से पढ़ लिया। एक बार क्लास में पढ़ रहा था तो अंग्रेजी के अध्यापक नाथ सहाय ने पकड़ लिया। वे मेरे शिक्षक पिता के शिष्य थे। शिकायत करने घर आये तो पिताजी साहित्यिक उपन्यास पढ़ रहे थे। इस तरह मैं बच गया। जब कक्षा नौ में था तो धर्मवीर भारती जी का 'गुनाहों का देवताÓ खूब चाव से पढ़ा। कक्षा सात में पहली कविता लिख दी। स्कूल के दौरान रचना आकाशवाणी से प्रसारित हुई। पंजाबी टीचर दयालचंद मिगलानी के कविता लेखन ने प्रेरित किया।
० साहित्यिक रुझान के बावजूद मेडिकल लाइन में कैसे जाना हुआ। यदि शुरू से ही साहित्य का क्षेत्र चुनते तो ज्यादा अच्छा होता?
- नंबर अच्छे आये थे। पिताजी इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन मेरी गणित खासकर त्रिकोणमति में रुचि न थी। मेडिकल लाइन चुनना पसंद किया। लेकिन मेडिकल कालेज, रोहतक में साहित्यिक गतिविधियां जारी रहीं। कालेज की पत्रिका 'रौ मेडिकलÓ का सहायक संपादक बना। पहली कहानी 'हमेशा शादी करवा लीÓ व 'ए डाक्टर इन मेकिंगÓ प्रकाशित हुई।
० पुस्तक लिखने का सिलसिला कब शुरू हुआ?
- साहित्य लेखन से लगातार जुड़ा रहा, लेकिन उन्हें प्रकाशित करवाने व अन्यत्र छपवाने के बारे में नहीं सोचा। वर्ष 1994 में जब पहली पुस्तक 'एक टुकड़ा दर्दÓ प्रकाशित हुई, तब तक तीन सौ कहानियां, 27 लघुकथाएं, 26 कविताएं, 100 $गकालें लिख चुका था, लेकिन कहीं छपने नहीं भेजी। पंजाबी ट्रिब्यून के प्रेम गोरखी एक बार मिलने आये और दैनिक ट्रिब्यून, चंडीगढ़ में प्रकाशन के लिए ले गये। लेकिन ये रचनाएं छद्म नाम गुल बकावली के नाम से प्रकाशित हुईं। पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला। फिर उन दिनों संपादक विजय सहगल जी का फोन आया, आपकी कहानियों पर पाठकों की बहुत ज्यादा प्रतिक्रिया आ रही है, आप अपने नाम से क्यों नहीं लिखते। फिर लिखने का सिलसिला शुरू हुआ। एक बार एक मरीज आया और मेरी कविताएं पढऩे को मांगी। बाद में खुद ही पुस्तक प्रकाशित करवा दी। फिर कहानी की किताब आयी। हिंदी, पंजाबी व हरियाणवी में छपी। उडिय़ा में भी अनूदित हुई।
० 'मसि कागदÓ का सिलसिला कैसे चला?
- उन दिनों साहित्य को आम आदमी तक पहुंचाने का जुनून था। अपनी जेब से 'मसि कागदÓ प्रकाशित कर पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश की। प्रयास ट्रस्ट के तत्वावधान में इसका एक-डेढ़ लाख का सालाना खर्च आता था। कभी किसी से चंदा नहीं लिया। कुछ पत्रिकाएं हिंदी संस्थान जरूर लेते थे, लेकिन फिर भी जेब से पैसा लगना होता था।
० आपके कई $गकाल संग्रह भी प्रकाशित हुए, $गकाल यात्रा कैसे शुरू हुई?
- मैं मूलत: कथाकार हूं। लेकिन मरीजों की भीड़ में समय नहीं मिलता था। मैंने मुक्त छंद से $गकाल लिखनी शुरू की। $गकाल का एक गुण है कि चुस्ती से बात कहती है। कम शब्दों में अधिक बात कही जा सकती है। उदाहरणार्थ :
'मेरे घर में घूमता रहता है दिन भर एक चांद,
चांद भी हो, रात भी हो, ये जरूरी तो नहीं।
* * * *
प्यार होता है सभी को किांदगी में एक बार
प्यार का इकाहार हो, ये कारूरी तो नहीं।
० हरिगंधा के मुख्य संपादक के तौर पर क्या सोचा?
- इंटरनेट संस्कृति में लोगों के पास वक्त कम है। अत: उन्हें उनकी रुचि के साथ परंपरा को जीवित रखना है। हरियाणा के साहित्यकारों व नवोदित लेखकों को मंच उपलब्ध कराना। बाहर के साहित्यकार भी यहां लिखें व हरियाणा के साहित्यकार बाहर लिखें। हमने कई कार्यशालाएं करवायीं, मासिक गोष्ठियों का सिलसिला शुरू किया। पाठकों को जोडऩे के लिए पाठक पुरस्कार शुरू किये।
--अरुण नैथानी
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